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1 योहन भूमिका

भूमिका
“संत योहन का पहला पत्र” दो मुख्‍य उद्देश्‍यों को सामने रखकर लिखा गया था। पहला उद्देश्‍य : पाठकों को उत्‍साहित करना कि वे परमेश्‍वर तथा उसके पुत्र प्रभु येशु के सत्‍संग में जीवन बिताएं। दूसरा उद्देश्‍य : उनको चेतावनी देना कि वे झूठी शिक्षा से बचें; अन्‍यथा यह झूठी शिक्षा उनके सत्‍संग को नष्‍ट कर देगी।
झूठी शिक्षा के मानने वाले यह विश्‍वास करते थे कि बुराई का जन्‍म भौतिक संसार के सम्‍पर्क में आने से होता है। अत: प्रभु येशु, अर्थात् परमेश्‍वर-पुत्र, मनुष्‍य हो ही नहीं सकते थे। सत्‍य केवल ज्ञान का विषय है; उसकी प्राप्‍ति के लिए यथार्थ जीवन-आचरण महत्‍वहीन है। इस प्रकार के ज्ञानवाद के शिक्षक दावा करते थे कि मुक्‍ति के लिये यह आवश्‍यक है कि मनुष्‍य इस भौतिक संसार से किसी भी प्रकार का सम्‍बन्‍ध न रखे। वे यह शिक्षा भी देते थे कि शाश्‍वत जीवन के लिए नैतिकता अथवा पड़ोसी के प्रति प्रेमपूर्ण व्‍यवहार, आदि मानवीय मूल्‍य अपनाने की आवश्‍यकता नहीं है।
इस झूठी शिक्षा का प्रतिवाद करते हुए लेखक स्‍पष्‍ट लिखता है कि प्रभु येशु वास्‍तविक, यथार्थ मनुष्‍य थे। लेखक इस बात पर जोर देता है कि जो व्यक्‍ति प्रभु येशु पर विश्‍वास करता है, और परमेश्‍वर से प्रेम करता है, वह अपने पड़ोसी से भी प्रेम करे, अर्थात् हम एक-दूसरे से भी प्रेम करें।
विषय-वस्‍तु की रूपरेखा
प्रस्‍तावना 1:1-4
ज्‍योति और अंधकार 1:5−2:28
परमेश्‍वर की संतति और शैतान की संतति 2:29−3:24
सत्‍य और झूठ 4:1-6
प्रेम एक कर्त्तव्‍य-कर्म है 4:7-27
विजयी विश्‍वास 5:1-21

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