1 कुरिन्थियों 12
12
पवित्र आत्मा के वरदान
1भाइयो और बहिनो! हम चाहते हैं कि आप लोगों को आध्यात्मिक वरदानों के विषय में निश्चित जानकारी हो।
2आप जानते हैं कि जब आप अन्यधर्मी थे, तो आप विवश हो कर गूंगी मूर्तियों की ओर खिंच जाते थे।#हब 2:18-19 3इसलिए मैं आप लोगों को बता देता हूँ कि कोई भी व्यक्ति परमेश्वर के आत्मा से प्रेरित हो कर यह नहीं कहता,“येशु शापित हो” और कोई भी व्यक्ति पवित्र आत्मा की प्रेरणा के बिना यह नहीं कह सकता,“येशु ही प्रभु है।”#मक 9:39; मत 7:21; 1 यो 4:2-3
4वरदान तो नाना प्रकार के होते हैं; किन्तु आत्मा एक ही है।#रोम 12:6; इफ 4:4 5सेवाएँ तो नाना प्रकार की होती हैं, किन्तु प्रभु एक ही हैं।#इफ 4:11 6प्रभावशाली कार्य तो नाना प्रकार के होते हैं, किन्तु एक ही परमेश्वर द्वारा सब में सब कार्य सम्पन्न होते हैं।
7प्रत्येक व्यक्ति को सब के कल्याण के लिए आत्मा का प्रकाश#12:7 अथवा, “पवित्र आत्मा को प्रकट करने की प्रेरणा” मिलता है।#1 कुर 14:26 8किसी को आत्मा द्वारा प्रज्ञ का संदेश सुनाने का, किसी को उसी आत्मा द्वारा ज्ञान के शब्द बोलने का 9और किसी को उसी आत्मा द्वारा विश्वास करने का वरदान मिलता है। एक ही आत्मा किसी को रोगियों को स्वस्थ करने का, 10किसी को प्रभावशाली आश्चर्य कर्म करने का, किसी को नबूवत करने का, किसी को आत्माओं की परख करने का, किसी को भिन्न-भिन्न अध्यात्मिक भाषाओं में बोलने का और किसी को उन भाषाओं की व्याख्या करने का वरदान देता है।#1 कुर 14:5; प्रे 2:4 11एक ही और वही आत्मा यह सब करता है। वह अपनी इच्छा के अनुसार प्रत्येक को अलग-अलग वरदान देता है।#रोम 12:3; इफ 4:7; 1 कुर 7:7
एक ही शरीर के अनेक अंग
12मनुष्य का शरीर एक है, यद्यपि उसके बहुत-से अंग होते हैं। और सभी अंग, अनेक होते हुए भी, एक ही शरीर बन जाते हैं। मसीह के विषय में भी यही बात है। #1 कुर 10:17 13हम यहूदी हों या यूनानी, दास हों या स्वतन्त्र, हम सब-के-सब एक ही आत्मा का बपतिस्मा ग्रहण कर एक ही शरीर बन गये हैं। हम सब को एक ही आत्मा का पान कराया गया है।#गल 3:28
14शरीर में भी तो एक नहीं, बल्कि बहुत-से अंग हैं। 15यदि पैर कहे, “मैं हाथ नहीं हूँ, इसलिए शरीर का नहीं हूँ”, तो क्या वह इस कारण शरीर का अंग नहीं? 16यदि कान कहे, “मैं आँख नहीं हूँ, इसलिए शरीर का नहीं हूँ”, तो क्या वह इस कारण शरीर का अंग नहीं? 17यदि सारा शरीर आँख ही होता, तो वह कैसे सुन सकता? यदि सारा शरीर कान ही होता, तो वह कैसे सूँघ सकता?
18वास्तव में परमेश्वर ने अपनी इच्छानुसार प्रत्येक अंग को शरीर में स्थान दिया है। 19यदि सब-के-सब एक ही अंग होते, तो शरीर कहाँ होता? 20वास्तव में बहुत-से अंग होने पर भी एक ही शरीर होता है। 21आँख हाथ से नहीं कह सकती, “मुझे तुम्हारी जरूरत नहीं”, और सिर पैरों से नहीं कह सकता, “मुझे तुम्हारी जरूरत नहीं।” 22वरन् इसके विपरीत, शरीर के जो अंग सब से दुर्बल समझे जाते हैं, वे अधिक आवश्यक हैं। 23शरीर के जिन अंगों को हम कम आदरणीय समझते हैं, उनका अधिक आदर करते हैं और अपने अशोभनीय अंगों की लज्जा का अधिक ध्यान रखते हैं। 24हमारे शोभनीय अंगों को इसकी जरूरत नहीं होती। तो, जो अंग कम आदरणीय हैं, परमेश्वर ने उन्हें अधिक आदर दिलाते हुए शरीर का संगठन किया है। 25यह इसलिए हुआ कि शरीर में फूट उत्पन्न न हो, बल्कि उसके सभी अंग एक दूसरे का ध्यान रखें। 26यदि एक अंग को पीड़ा होती है, तो उसके साथ सभी अंगों को पीड़ा होती है और यदि एक अंग का सम्मान किया जाता है, तो उसके साथ सभी अंग आनन्द मनाते हैं।
27इसी तरह आप सब मिल कर मसीह की देह हैं और आप में से प्रत्येक उसका एक अंग है।#रोम 12:5; इफ 5:30 28परमेश्वर ने कलीसिया में भिन्न-भिन्न व्यक्तियों को नियुक्त किया है : पहले प्रेरितों को, दूसरे नबियों को, तीसरे शिक्षकों और तब आश्चर्य कर्म करने वालों को; तब उन व्यक्तियों को, जिनको स्वस्थ करने का वरदान मिला है; परोपकारकों, प्रशासकों और विभिन्न अध्यात्म भाषाओं में बोलने वालों को।#इफ 4:11-12 29क्या सब प्रेरित हैं? सब नबी हैं? सब शिक्षक हैं? सब आश्चर्य कर्म करने वाले हैं? 30क्या सब को स्वस्थ करने का वरदान मिला है? सब अध्यात्म भाषाओं में बोलते हैं? सब व्याख्या करने वाले हैं? 31जो भी हो, आप श्रेष्ठतर वरदानों की धुन में रहें!#1 कुर 14:1
प्रेम सबसे उत्तम मार्ग है
अब मैं आप के सम्मुख सर्वोत्तम मार्ग प्रस्तुत करता हूँ :
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Hindi CL Bible - पवित्र बाइबिल
Copyright © Bible Society of India, 2015.
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1 कुरिन्थियों 12
12
पवित्र आत्मा के वरदान
1भाइयो और बहिनो! हम चाहते हैं कि आप लोगों को आध्यात्मिक वरदानों के विषय में निश्चित जानकारी हो।
2आप जानते हैं कि जब आप अन्यधर्मी थे, तो आप विवश हो कर गूंगी मूर्तियों की ओर खिंच जाते थे।#हब 2:18-19 3इसलिए मैं आप लोगों को बता देता हूँ कि कोई भी व्यक्ति परमेश्वर के आत्मा से प्रेरित हो कर यह नहीं कहता,“येशु शापित हो” और कोई भी व्यक्ति पवित्र आत्मा की प्रेरणा के बिना यह नहीं कह सकता,“येशु ही प्रभु है।”#मक 9:39; मत 7:21; 1 यो 4:2-3
4वरदान तो नाना प्रकार के होते हैं; किन्तु आत्मा एक ही है।#रोम 12:6; इफ 4:4 5सेवाएँ तो नाना प्रकार की होती हैं, किन्तु प्रभु एक ही हैं।#इफ 4:11 6प्रभावशाली कार्य तो नाना प्रकार के होते हैं, किन्तु एक ही परमेश्वर द्वारा सब में सब कार्य सम्पन्न होते हैं।
7प्रत्येक व्यक्ति को सब के कल्याण के लिए आत्मा का प्रकाश#12:7 अथवा, “पवित्र आत्मा को प्रकट करने की प्रेरणा” मिलता है।#1 कुर 14:26 8किसी को आत्मा द्वारा प्रज्ञ का संदेश सुनाने का, किसी को उसी आत्मा द्वारा ज्ञान के शब्द बोलने का 9और किसी को उसी आत्मा द्वारा विश्वास करने का वरदान मिलता है। एक ही आत्मा किसी को रोगियों को स्वस्थ करने का, 10किसी को प्रभावशाली आश्चर्य कर्म करने का, किसी को नबूवत करने का, किसी को आत्माओं की परख करने का, किसी को भिन्न-भिन्न अध्यात्मिक भाषाओं में बोलने का और किसी को उन भाषाओं की व्याख्या करने का वरदान देता है।#1 कुर 14:5; प्रे 2:4 11एक ही और वही आत्मा यह सब करता है। वह अपनी इच्छा के अनुसार प्रत्येक को अलग-अलग वरदान देता है।#रोम 12:3; इफ 4:7; 1 कुर 7:7
एक ही शरीर के अनेक अंग
12मनुष्य का शरीर एक है, यद्यपि उसके बहुत-से अंग होते हैं। और सभी अंग, अनेक होते हुए भी, एक ही शरीर बन जाते हैं। मसीह के विषय में भी यही बात है। #1 कुर 10:17 13हम यहूदी हों या यूनानी, दास हों या स्वतन्त्र, हम सब-के-सब एक ही आत्मा का बपतिस्मा ग्रहण कर एक ही शरीर बन गये हैं। हम सब को एक ही आत्मा का पान कराया गया है।#गल 3:28
14शरीर में भी तो एक नहीं, बल्कि बहुत-से अंग हैं। 15यदि पैर कहे, “मैं हाथ नहीं हूँ, इसलिए शरीर का नहीं हूँ”, तो क्या वह इस कारण शरीर का अंग नहीं? 16यदि कान कहे, “मैं आँख नहीं हूँ, इसलिए शरीर का नहीं हूँ”, तो क्या वह इस कारण शरीर का अंग नहीं? 17यदि सारा शरीर आँख ही होता, तो वह कैसे सुन सकता? यदि सारा शरीर कान ही होता, तो वह कैसे सूँघ सकता?
18वास्तव में परमेश्वर ने अपनी इच्छानुसार प्रत्येक अंग को शरीर में स्थान दिया है। 19यदि सब-के-सब एक ही अंग होते, तो शरीर कहाँ होता? 20वास्तव में बहुत-से अंग होने पर भी एक ही शरीर होता है। 21आँख हाथ से नहीं कह सकती, “मुझे तुम्हारी जरूरत नहीं”, और सिर पैरों से नहीं कह सकता, “मुझे तुम्हारी जरूरत नहीं।” 22वरन् इसके विपरीत, शरीर के जो अंग सब से दुर्बल समझे जाते हैं, वे अधिक आवश्यक हैं। 23शरीर के जिन अंगों को हम कम आदरणीय समझते हैं, उनका अधिक आदर करते हैं और अपने अशोभनीय अंगों की लज्जा का अधिक ध्यान रखते हैं। 24हमारे शोभनीय अंगों को इसकी जरूरत नहीं होती। तो, जो अंग कम आदरणीय हैं, परमेश्वर ने उन्हें अधिक आदर दिलाते हुए शरीर का संगठन किया है। 25यह इसलिए हुआ कि शरीर में फूट उत्पन्न न हो, बल्कि उसके सभी अंग एक दूसरे का ध्यान रखें। 26यदि एक अंग को पीड़ा होती है, तो उसके साथ सभी अंगों को पीड़ा होती है और यदि एक अंग का सम्मान किया जाता है, तो उसके साथ सभी अंग आनन्द मनाते हैं।
27इसी तरह आप सब मिल कर मसीह की देह हैं और आप में से प्रत्येक उसका एक अंग है।#रोम 12:5; इफ 5:30 28परमेश्वर ने कलीसिया में भिन्न-भिन्न व्यक्तियों को नियुक्त किया है : पहले प्रेरितों को, दूसरे नबियों को, तीसरे शिक्षकों और तब आश्चर्य कर्म करने वालों को; तब उन व्यक्तियों को, जिनको स्वस्थ करने का वरदान मिला है; परोपकारकों, प्रशासकों और विभिन्न अध्यात्म भाषाओं में बोलने वालों को।#इफ 4:11-12 29क्या सब प्रेरित हैं? सब नबी हैं? सब शिक्षक हैं? सब आश्चर्य कर्म करने वाले हैं? 30क्या सब को स्वस्थ करने का वरदान मिला है? सब अध्यात्म भाषाओं में बोलते हैं? सब व्याख्या करने वाले हैं? 31जो भी हो, आप श्रेष्ठतर वरदानों की धुन में रहें!#1 कुर 14:1
प्रेम सबसे उत्तम मार्ग है
अब मैं आप के सम्मुख सर्वोत्तम मार्ग प्रस्तुत करता हूँ :
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