अय्यूब 14
14
जीवन क्षण-भंगुर
1‘स्त्री से जन्मा मनुष्य
अल्पायु होता है;
उसका सारा जीवन दु:ख से भरा रहता है।#प्रज्ञ 2:1; प्रव 40:1-11; 41:1-4
2वह फूल के समान खिलता है,
और फिर मुरझा जाता है;
वह छाया के समान ढलता है,
और स्थिर नहीं रहता है।#यश 40:6
3प्रभु, ऐसे क्षण-भंगुर मनुष्य को
क्या तू जाँचता है?
तू अपने साथ ऐसे मनुष्य को
अदालत में खड़ा करता है?
4काश! अशुद्ध मनुष्यजाति में
एक भी मनुष्य शुद्ध होता!
पर नहीं, एक भी मनुष्य शुद्ध नहीं है।#भज 51:5; रोम 5:12
5उसके जीवन के दिन निश्चित हैं,
उसकी आयु के महीने तेरे हाथ में हैं।
तूने उसके सामने सीमा-रेखा खींच दी है
जिसको वह पार नहीं कर सकता।
6हे प्रभु, उस पर से दृष्टि हटा,
ताकि वह प्रसन्नवदन हो सके,
और एक मजदूर के समान
दिन की समाप्ति पर
आराम कर सके।
7‘वृक्ष’ को भी
अपने पुनर्जीवन की आशा है;
यदि वह काट लिया जाए
तो भी वह पुन: पनप उठेगा;
और उसमें से अंकुर फूटेंगे।
8चाहे उसकी जड़ भूमि में
पुरानी पड़ गई हो,
उसका तना मिट्टी में सूख गया हो,
9फिर भी पानी के छींटे पाते ही
वह पनप उठेगा;
जवान पौधे के समान
उसमें अंकुर फूटने लगेंगे।
10परन्तु मनुष्य जब मर जाता है,
वह निष्क्रिय पड़ा रहता है।
अपनी अन्तिम साँस लेने के बाद
मनुष्य कहाँ रहता है?
11जैसे तालाब का पानी सूख जाता है,
जैसे नदी सूखकर लुप्त हो जाती है,
12वैसे ही मनुष्य भूमि पर लेटने के बाद फिर
नहीं उठता;
जब तक आकाश का अन्त न होगा,
वह नहीं जागेगा;
वह अपनी चिरनिद्रा से नहीं उठेगा।
13हे प्रभु, काश!
तू मुझे अधोलोक में छिपा लेता;
और तब तक मुझे छिपाए रखता,
जब तक तेरा क्रोध शान्त न हो जाता।
भला होता कि तू मेरे लिए
निश्चित समय निर्धारित करता,
और मेरी सुधि लेता!
14‘यदि कोई मनुष्य मर जाए
तो क्या वह फिर जीवित होगा?
जब तक मुझे अन्धकार से मुक्ति नहीं
मिलेगी,
मैं कठिन सेवा की पूर्ण अवधि में
प्रतीक्षा करता रहूँगा।
15काश! तू मुझे बुलाता और मैं तुझे उत्तर देता;
क्योंकि तू अपनी रचना
देखने को इच्छुक रहता है!
16तब तू मेरे पग-पग को गिनता;
पर तू मेरे पाप की उपेक्षा करता!
17तू मेरे पाप की गठरी को
मुहरबन्द कर एक ओर रख देता,
और मेरे अधर्म पर परदा डाल देता।
18‘जिस प्रकार पहाड़ टूटकर गिरता है,
और वह चकनाचूर हो जाता है,
जैसे चट्टान अपने स्थान से हट जाती है,
19जिस प्रकार जल की धारा से
पत्थर घिस जाते हैं,
बाढ़ भूमि को काटकर बहा ले जाती है,
उसी प्रकार, हे प्रभु,
तू मनुष्य की आशा को धूल में मिला देता
है!
20तू सदा उसको दबाए रखता है,
अत: वह गुजर जाता है;
तू उसका चेहरा बिगाड़ देता है,
और उसको दूर भेज देता है।
21उसके पुत्र-पुत्रियाँ धन-दौलत से सम्मानित
होते हैं,
पर वह यह नहीं जानता;
वे गरीब होकर अपमानित होते हैं,
लेकिन यह उसको अनुभव नहीं होता।
22वह अपनी देह की ही पीड़ा
अनुभव करता है;
उसका प्राण केवल उसके लिए शोक
मनाता है।’
वर्तमान में चयनित:
अय्यूब 14: HINCLBSI
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Hindi CL Bible - पवित्र बाइबिल
Copyright © Bible Society of India, 2015.
Used by permission. All rights reserved worldwide.
अय्यूब 14
14
जीवन क्षण-भंगुर
1‘स्त्री से जन्मा मनुष्य
अल्पायु होता है;
उसका सारा जीवन दु:ख से भरा रहता है।#प्रज्ञ 2:1; प्रव 40:1-11; 41:1-4
2वह फूल के समान खिलता है,
और फिर मुरझा जाता है;
वह छाया के समान ढलता है,
और स्थिर नहीं रहता है।#यश 40:6
3प्रभु, ऐसे क्षण-भंगुर मनुष्य को
क्या तू जाँचता है?
तू अपने साथ ऐसे मनुष्य को
अदालत में खड़ा करता है?
4काश! अशुद्ध मनुष्यजाति में
एक भी मनुष्य शुद्ध होता!
पर नहीं, एक भी मनुष्य शुद्ध नहीं है।#भज 51:5; रोम 5:12
5उसके जीवन के दिन निश्चित हैं,
उसकी आयु के महीने तेरे हाथ में हैं।
तूने उसके सामने सीमा-रेखा खींच दी है
जिसको वह पार नहीं कर सकता।
6हे प्रभु, उस पर से दृष्टि हटा,
ताकि वह प्रसन्नवदन हो सके,
और एक मजदूर के समान
दिन की समाप्ति पर
आराम कर सके।
7‘वृक्ष’ को भी
अपने पुनर्जीवन की आशा है;
यदि वह काट लिया जाए
तो भी वह पुन: पनप उठेगा;
और उसमें से अंकुर फूटेंगे।
8चाहे उसकी जड़ भूमि में
पुरानी पड़ गई हो,
उसका तना मिट्टी में सूख गया हो,
9फिर भी पानी के छींटे पाते ही
वह पनप उठेगा;
जवान पौधे के समान
उसमें अंकुर फूटने लगेंगे।
10परन्तु मनुष्य जब मर जाता है,
वह निष्क्रिय पड़ा रहता है।
अपनी अन्तिम साँस लेने के बाद
मनुष्य कहाँ रहता है?
11जैसे तालाब का पानी सूख जाता है,
जैसे नदी सूखकर लुप्त हो जाती है,
12वैसे ही मनुष्य भूमि पर लेटने के बाद फिर
नहीं उठता;
जब तक आकाश का अन्त न होगा,
वह नहीं जागेगा;
वह अपनी चिरनिद्रा से नहीं उठेगा।
13हे प्रभु, काश!
तू मुझे अधोलोक में छिपा लेता;
और तब तक मुझे छिपाए रखता,
जब तक तेरा क्रोध शान्त न हो जाता।
भला होता कि तू मेरे लिए
निश्चित समय निर्धारित करता,
और मेरी सुधि लेता!
14‘यदि कोई मनुष्य मर जाए
तो क्या वह फिर जीवित होगा?
जब तक मुझे अन्धकार से मुक्ति नहीं
मिलेगी,
मैं कठिन सेवा की पूर्ण अवधि में
प्रतीक्षा करता रहूँगा।
15काश! तू मुझे बुलाता और मैं तुझे उत्तर देता;
क्योंकि तू अपनी रचना
देखने को इच्छुक रहता है!
16तब तू मेरे पग-पग को गिनता;
पर तू मेरे पाप की उपेक्षा करता!
17तू मेरे पाप की गठरी को
मुहरबन्द कर एक ओर रख देता,
और मेरे अधर्म पर परदा डाल देता।
18‘जिस प्रकार पहाड़ टूटकर गिरता है,
और वह चकनाचूर हो जाता है,
जैसे चट्टान अपने स्थान से हट जाती है,
19जिस प्रकार जल की धारा से
पत्थर घिस जाते हैं,
बाढ़ भूमि को काटकर बहा ले जाती है,
उसी प्रकार, हे प्रभु,
तू मनुष्य की आशा को धूल में मिला देता
है!
20तू सदा उसको दबाए रखता है,
अत: वह गुजर जाता है;
तू उसका चेहरा बिगाड़ देता है,
और उसको दूर भेज देता है।
21उसके पुत्र-पुत्रियाँ धन-दौलत से सम्मानित
होते हैं,
पर वह यह नहीं जानता;
वे गरीब होकर अपमानित होते हैं,
लेकिन यह उसको अनुभव नहीं होता।
22वह अपनी देह की ही पीड़ा
अनुभव करता है;
उसका प्राण केवल उसके लिए शोक
मनाता है।’
वर्तमान में चयनित:
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