प्रभु, क्यों तू दूर खड़ा रहता है? क्यों मेरे संकट के समय तू स्वयं को छिपाता है? अहंकारवश दुर्जन पीड़ित मनुष्य का शिकार करते हैं; वे स्वयं उस षड्यन्त्र में फंस जाएं, जिसे उन्होंने रचा है। दुर्जन अपनी अभिलाषा की डींग मारता है; वह स्वयं की प्रशंसा करता, पर प्रभु की निन्दा करता है। अहंकारवश दुर्जन प्रभु को खोजता नहीं, उसका यह विचार है, “परमेश्वर है ही नहीं।” वह सदा अपने मार्ग पर फलता-फूलता है; तेरे न्याय-सिद्धान्त उसकी दृष्टि से दूर, शिखर पर हैं, वह अपने सब शत्रुओं पर फूत्कारता है। वह अपने हृदय में यह सोचता है, “मैं अटल हूँ। मैं पीढ़ी से पीढ़ी तक संकट में नहीं पड़ूंगा।” उसका मुंह कपट, शाप और अत्याचार से भरा है; उसकी जीभ पर अनिष्ट और अपकार हैं। वह गाँवों में घात लगाकर बैठा रहता है, वह गुप्त स्थानों में निर्दोष की हत्या करता है। उसकी आंखें छिपे-छिपे शिकार को ताकती हैं। वह एकांत में घात लगाकर बैठता है, जैसे सिंह झाड़ी में। वह घात में बैठता है कि पीड़ित को दबोचे। जब वह पीड़ित को जाल में फंसा लेता है, तब उसे दबोचता है। अभागा मनुष्य दब जाता है और झुक जाता है, और उसके प्रबल दबाव से गिर पड़ता है। अभागा अपने हृदय में यह सोचता है, “परमेश्वर मुझे भूल गया। उसने अपना मुख छिपा लिया। वह फिर कभी इधर नहीं देखेगा।”
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