नीतिवचन 27
27
1कल के दिन के विषय में डींग मत मार,
क्योंकि तू नहीं जानता कि
दिन भर में क्या होगा।#याकू 4:13–16
2तेरी प्रशंसा और लोग करें तो करें,
परन्तु तू आप न करना;
दूसरा तुझे सराहे तो सराहे,
परन्तु तू अपनी सराहना न करना।
3पत्थर तो भारी है और बालू में बोझ है,
परन्तु मूढ़ का क्रोध उन दोनों से भारी है।
4क्रोध तो क्रूर, और प्रकोप धारा के
समान होता है,
परन्तु जब कोई जल उठता है, तब कौन
ठहर सकता है।
5खुली हुई डाँट
गुप्त प्रेम से उत्तम है।
6जो घाव मित्र के हाथ से लगें
वह विश्वास योग्य हैं
परन्तु बैरी अधिक चुम्बन करता है।
7सन्तुष्ट होने पर मधु का छत्ता भी
फीका लगता है#27:7 मूल में, तृप्त जीव छत्ता रौंदता है
परन्तु भूखे को सब कड़वी वस्तुएँ भी
मीठी जान पड़ती हैं।
8स्थान छोड़कर घूमनेवाला मनुष्य
उस चिड़िया के समान है,
जो घोंसला छोड़कर उड़ती फिरती है।
9जैसे तेल और सुगन्ध से,
वैसे ही मित्र के हृदय की मनोहर सम्मति
से मन आनन्दित होता है।
10जो तेरा और तेरे पिता का भी मित्र हो
उसे न छोड़ना,
और अपनी विपत्ति के दिन
अपने भाई के घर न जाना।
प्रेम करनेवाला पड़ोसी, दूर रहनेवाले
भाई से कहीं उत्तम है।
11हे मेरे पुत्र, बुद्धिमान होकर
मेरा मन आनन्दित कर,
तब मैं अपने निन्दा करनेवाले को
उत्तर दे सकूँगा।
12बुद्धिमान मनुष्य विपत्ति को आती देखकर
छिप जाता है;
परन्तु भोले लोग आगे बढ़े चले जाते और
हानि उठाते हैं।
13जो पराए का उत्तरदायी हो उसका कपड़ा,
और जो अनजान का उत्तरदायी हो
उससे बन्धक की वस्तु ले ले।
14जो भोर को उठकर अपने पड़ोसी को
ऊँचे शब्द से आशीर्वाद देता है,
उसके लिये यह शाप गिना जाता है।
15झड़ी के दिन पानी का लगातार टपकना,
और झगड़ालू पत्नी दोनों एक से हैं;
16जो उसको रोक रखे,
वह वायु को भी रोक रखेगा
और दाहिने हाथ से वह तेल पकड़ेगा।
17जैसे लोहा लोहे को चमका देता है,
वैसे ही मनुष्य का मुख अपने मित्र की
संगति से चमकदार हो जाता है।
18जो अंजीर के पेड़ की रक्षा करता है
वह उसका फल खाता है,
इसी रीति से जो अपने स्वामी की
सेवा करता उसकी महिमा होती है।
19जैसे जल में मुख की परछाईं
मुख को प्रगट करती है,
वैसे ही मनुष्य का मन मनुष्य को
प्रगट करता है।
20जैसे अधोलोक और विनाशलोक,
वैसे ही मनुष्य की आँखें भी
तृप्त नहीं होतीं।
21जैसे चाँदी के लिये कुठाली
और सोने के लिये भट्ठी हैं,
वैसे ही मनुष्य के लिये उसकी प्रशंसा है।
22चाहे तू मूर्ख को अनाज के बीच
ओखली में डालकर मूसल से कूटे,
तौभी उसकी मूर्खता नहीं जाने की।
23अपनी भेड़–बकरियों की दशा
भली–भाँति मन लगाकर जान ले,
और अपने सब पशुओं के झुण्डों की देखभाल
उचित रीति से कर;
24क्योंकि सम्पत्ति सदा नहीं ठहरती;
और क्या राजमुकुट पीढ़ी से पीढ़ी तक
बना रहता है?
25जब कटी हुई घास उठा ली जाती,
और नई घास दिखाई देती,
और पहाड़ों की हरियाली काटकर
इकट्ठी की जाती है;
26तब भेड़ों के बच्चे तेरे वस्त्र के लिये होंगे,
और बकरों के द्वारा खेत का मूल्य
दिया जाएगा;
27और बकरियों का दूध इतना होगा कि तू
अपने घराने समेत पेट भरके पिया करेगा,
और तेरी दासियों का भी जीवन निर्वाह
होता रहेगा।
वर्तमान में चयनित:
नीतिवचन 27: HINOVBSI
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नीतिवचन 27
27
1कल के दिन के विषय में डींग मत मार,
क्योंकि तू नहीं जानता कि
दिन भर में क्या होगा।#याकू 4:13–16
2तेरी प्रशंसा और लोग करें तो करें,
परन्तु तू आप न करना;
दूसरा तुझे सराहे तो सराहे,
परन्तु तू अपनी सराहना न करना।
3पत्थर तो भारी है और बालू में बोझ है,
परन्तु मूढ़ का क्रोध उन दोनों से भारी है।
4क्रोध तो क्रूर, और प्रकोप धारा के
समान होता है,
परन्तु जब कोई जल उठता है, तब कौन
ठहर सकता है।
5खुली हुई डाँट
गुप्त प्रेम से उत्तम है।
6जो घाव मित्र के हाथ से लगें
वह विश्वास योग्य हैं
परन्तु बैरी अधिक चुम्बन करता है।
7सन्तुष्ट होने पर मधु का छत्ता भी
फीका लगता है#27:7 मूल में, तृप्त जीव छत्ता रौंदता है
परन्तु भूखे को सब कड़वी वस्तुएँ भी
मीठी जान पड़ती हैं।
8स्थान छोड़कर घूमनेवाला मनुष्य
उस चिड़िया के समान है,
जो घोंसला छोड़कर उड़ती फिरती है।
9जैसे तेल और सुगन्ध से,
वैसे ही मित्र के हृदय की मनोहर सम्मति
से मन आनन्दित होता है।
10जो तेरा और तेरे पिता का भी मित्र हो
उसे न छोड़ना,
और अपनी विपत्ति के दिन
अपने भाई के घर न जाना।
प्रेम करनेवाला पड़ोसी, दूर रहनेवाले
भाई से कहीं उत्तम है।
11हे मेरे पुत्र, बुद्धिमान होकर
मेरा मन आनन्दित कर,
तब मैं अपने निन्दा करनेवाले को
उत्तर दे सकूँगा।
12बुद्धिमान मनुष्य विपत्ति को आती देखकर
छिप जाता है;
परन्तु भोले लोग आगे बढ़े चले जाते और
हानि उठाते हैं।
13जो पराए का उत्तरदायी हो उसका कपड़ा,
और जो अनजान का उत्तरदायी हो
उससे बन्धक की वस्तु ले ले।
14जो भोर को उठकर अपने पड़ोसी को
ऊँचे शब्द से आशीर्वाद देता है,
उसके लिये यह शाप गिना जाता है।
15झड़ी के दिन पानी का लगातार टपकना,
और झगड़ालू पत्नी दोनों एक से हैं;
16जो उसको रोक रखे,
वह वायु को भी रोक रखेगा
और दाहिने हाथ से वह तेल पकड़ेगा।
17जैसे लोहा लोहे को चमका देता है,
वैसे ही मनुष्य का मुख अपने मित्र की
संगति से चमकदार हो जाता है।
18जो अंजीर के पेड़ की रक्षा करता है
वह उसका फल खाता है,
इसी रीति से जो अपने स्वामी की
सेवा करता उसकी महिमा होती है।
19जैसे जल में मुख की परछाईं
मुख को प्रगट करती है,
वैसे ही मनुष्य का मन मनुष्य को
प्रगट करता है।
20जैसे अधोलोक और विनाशलोक,
वैसे ही मनुष्य की आँखें भी
तृप्त नहीं होतीं।
21जैसे चाँदी के लिये कुठाली
और सोने के लिये भट्ठी हैं,
वैसे ही मनुष्य के लिये उसकी प्रशंसा है।
22चाहे तू मूर्ख को अनाज के बीच
ओखली में डालकर मूसल से कूटे,
तौभी उसकी मूर्खता नहीं जाने की।
23अपनी भेड़–बकरियों की दशा
भली–भाँति मन लगाकर जान ले,
और अपने सब पशुओं के झुण्डों की देखभाल
उचित रीति से कर;
24क्योंकि सम्पत्ति सदा नहीं ठहरती;
और क्या राजमुकुट पीढ़ी से पीढ़ी तक
बना रहता है?
25जब कटी हुई घास उठा ली जाती,
और नई घास दिखाई देती,
और पहाड़ों की हरियाली काटकर
इकट्ठी की जाती है;
26तब भेड़ों के बच्चे तेरे वस्त्र के लिये होंगे,
और बकरों के द्वारा खेत का मूल्य
दिया जाएगा;
27और बकरियों का दूध इतना होगा कि तू
अपने घराने समेत पेट भरके पिया करेगा,
और तेरी दासियों का भी जीवन निर्वाह
होता रहेगा।
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