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अय्यूब 15

15
द्वितीय संवाद
(15:1—21:34)
एलीपज का आरोप
1तब तेमानी एलीपज ने कहा,
2“क्या बुद्धिमान को उचित है कि
अज्ञानता#15:2 मूल में, वायु के साथ उत्तर दे,
या अपने अन्त:करण को पूरबी पवन से भरे?
3क्या वह निष्फल वचनों से,
या व्यर्थ बातों से वाद–विवाद करे?
4वरन् तू परमेश्‍वर का भय मानना छोड़ देता,
और परमेश्‍वर पर ध्यान लगाना औरों से
छुड़ाता है।
5तू अपने मुँह से अपना अधर्म प्रगट करता है,
और धूर्त लोगों के बोलने की रीति पर
बोलता है#15:5 मूल में, धूर्तों की जीभ चुनता है
6मैं तो नहीं परन्तु तेरा मुँह ही तुझे दोषी
ठहराता है;
और तेरे ही वचन तेरे विरुद्ध साक्षी देते हैं।
7“क्या पहला मनुष्य तू ही उत्पन्न हुआ?
क्या तेरी उत्पत्ति पहाड़ों से भी पहले हुई?
8क्या तू परमेश्‍वर की सभा में बैठा सुनता था?
क्या बुद्धि का ठेका तू ही ने ले रखा है?
9तू ऐसा क्या जानता है जिसे हम नहीं जानते?
तुझ में ऐसी कौन सी समझ है जो हम
में नहीं?
10हम लोगों में तो पक्‍के बालवाले और अति
पुरनिये मनुष्य हैं,
जो तेरे पिता से भी बहुत आयु के हैं।
11परमेश्‍वर की शान्तिदायक बातें,
और जो वचन तेरे लिये कोमल हैं, क्या
वे तेरी दृष्‍टि में तुच्छ हैं?
12तेरा मन क्यों तुझे खींच ले जाता है,
और तू आँख से क्यों सैन करता है?
13तू भी अपनी आत्मा परमेश्‍वर के विरुद्ध करता है,
और अपने मुँह से व्यर्थ बातें निकलने
देता है।
14मनुष्य है क्या कि वह निष्कलंक हो?
या जो स्त्री से उत्पन्न हुआ वह है क्या कि
निर्दोष हो सके?
15देख, वह अपने पवित्रजनों पर भी विश्‍वास
नहीं करता,
और स्वर्ग#15:15 वा आकाश भी उसकी दृष्‍टि में निर्मल नहीं है।
16फिर मनुष्य अधिक घिनौना और भ्रष्‍ट है, जो
कुटिलता को पानी के समान पीता है।#अय्यू 25:4–6
17“मैं तुझे समझा दूँगा, इसलिये मेरी सुन ले,
जो मैं ने देखा है, उसी का वर्णन मैं
करता हूँ।
18(वे ही बातें जो बुद्धिमानों ने अपने पुरखाओं
से सुनकर
बिना छिपाए बताई हैं,
19केवल उन्हीं को देश दिया गया था,
और उनके मध्य में कोई विदेशी आता
जाता नहीं था)।
20दुष्‍ट जन जीवन भर पीड़ा से तड़पता है, और
बलात्कारी के वर्षों की गिनती ठहराई
हुई है।
21उसके कान में डरावना शब्द गूँजता रहता है,
कुशल के समय भी नाश करनेवाला उस
पर आ पड़ता है।
22उसे अन्धियारे में से फिर निकलने की कुछ
आशा नहीं होती,
और तलवार उसकी घात में रहती है।
23वह रोटी के लिये मारा मारा फिरता है, कि
कहाँ मिलेगी।
उसे निश्‍चय रहता है कि अन्धकार का दिन
मेरे पास ही है।
24संकट और दुर्घटना से उसको डर लगता
रहता है;
ऐसे राजा के समान जो युद्ध के लिये तैयार हो,
वे उस पर प्रबल होते हैं।
25क्योंकि उसने तो परमेश्‍वर के विरुद्ध हाथ
बढ़ाया है,
और सर्वशक्‍तिमान के विरुद्ध वह ताल
ठोंकता है,
26और सिर उठाकर#15:26 मूल में, गर्दन है और अपनी मोटी मोटी
ढालें दिखाता हुआ#15:26 मूल में, अपनी ढालों की मोटी पीठों , घमण्ड से
उस पर धावा करता है;
27इसलिये कि उसके मुँह पर चिकनाई छा
गई है,
और उसकी कमर में चर्बी जमी है,
28और वह उजाड़े हुए नगरों में बस गया है,
और जो घर रहने योग्य नहीं,
और खण्डहर होने को छोड़े गए हैं, उनमें
बस गया है;
29वह धनी न रहेगा, और न उसकी सम्पत्ति
बनी रहेगी,
और ऐसे लोगों के खेत की उपज भूमि की
ओर न झुकने पाएगी;
30वह अन्धियारे से कभी न निकलेगा;
और उसकी डालियाँ आग की लपट से
झुलस जाएँगी,
और परमेश्‍वर के मुँह की श्‍वास से वह
उड़ जाएगा।
31वह व्यर्थ बातों का भरोसा करके अपने को
धोखा न दे,
क्योंकि उसका बदला धोखा ही होगा।
32यह उसके नियत दिन से पहले पूरा हो जाएगा;
उसकी डालियाँ हरी न रहेंगी।
33दाख के समान उसके कच्‍चे फल झड़ जाएँगे,
और उसके फूल जैतून के वृक्ष के से गिरेंगे।
34क्योंकि भक्‍तिहीन के परिवार से कुछ बन
न पड़ेगा#15:34 मूल में, परिवार बाँझ होगा ,
और जो घूस लेते हैं, उनके तम्बू आग से
जल जाएँगे।
35उनको उपद्रव का गर्भ रहता, और वे अनर्थ
को जन्म देते हैं :
और वे अपने अन्त:करण में छल की बातें
गढ़ते हैं।”

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