अय्यूब 31
31
अय्यूब अपने तर्क को पुन: दोहराता है : “मैं धार्मिक और सिद्ध हूं!”
1‘मैंने अपनी आंखों के साथ समझौता
किया है कि
मैं किसी कुंवारी को बुरी नजर से नहीं
देखूंगा।#मत 5:28
2यदि मैं अपने इस समझौते को भंग करूं
तो स्वर्ग में विराजमान परमेश्वर
मुझे मेरे हिस्से में क्या देगा;
सर्वशक्तिमान परमेश्वर मीरास में मुझे क्या
प्रदान करेगा?
3क्या अधर्मियों पर विपत्ति नहीं आती?
क्या दुष्कर्मियों का सर्वनाश नहीं होता?
4क्या परमेश्वर मेरे आचरण को नहीं देखता?
क्या वह मेरे प्रत्येक कदम को नहीं गिनता?
5‘यदि मैं छल-कपट के मार्ग पर चलता रहा
हूं,
यदि मैंने कपटपूर्ण आचरण के लिए अविलम्ब
पग उठाए हैं;
6तो मैं धर्मतुला पर तौला जाऊं;
और परमेश्वर को ज्ञात हो कि
मैं धार्मिक और सिद्ध हूं!
7यदि मेरे पैर सन्मार्ग से भटक गए थे
और मेरा हृदय आंखों के बताए हुए कुमार्ग
पर चला था;
यदि मेरे हाथ किसी दुष्कर्म से कलंकित हुए
8तो मेरे परिश्रम का फल दूसरा व्यक्ति खाए!
मेरे खेत की सब फसल जड़-मूल से नष्ट हो
जाए!
9‘यदि मेरा हृदय पड़ोसी की पत्नी पर मोहित
हो गया था;
और मैं उसके द्वार पर घात में बैठता था
10तो मेरी पत्नी दासी बन जाए,
वह दूसरों के लिए चक्की पीसे,
और दूसरे पुरुष उसको भ्रष्ट करें।
11क्योंकि मेरा यह व्यवहार महा दुष्कर्म है;
इस अधर्म का कठोर दण्ड
न्यायाधीशों के द्वारा अवश्य दिया जाना
चाहिए।
12यह एक ऐसी आग है
जो विनाश-लोक को भी भस्म कर देती है;
यह मेरी समस्त समृद्धि को जड़ से खाक
कर देती!
13‘जब मेरे नौकर अथवा नौकरानी ने मेरे
विरुद्ध मुझसे शिकायत की
और यदि मैंने उसकी शिकायत नहीं सुनी,
14तो मैं परमेश्वर के सम्मुख क्या करूंगा
जब वह न्याय के लिए उठेगा?
जव वह मुझसे पूछताछ करेगा
तब मैं उसको क्या उत्तर दूंगा?
15जिस परमेश्वर ने मां के गर्भ में मेरी रचना
की,
क्या उसने ही मेरे नौकर को नहीं रचा है?
क्या एक ही परमेश्वर ने हम दोनों को नहीं
गढ़ा है?#नीति 14:31; मल 2:10
16‘यदि मैंने किसी गरीब की इच्छा पूरी नहीं
की,
यदि मैंने किसी विधवा की आशापूर्ण
आंखों को निराश किया,#तोब 4:7-11,16
17यदि मैंने अकेले ही कभी भोजन किया,
और मेरे भोजन में अनाथ बालक सम्भागी
नहीं हुआ;
18(क्योंकि बचपन से ही मैंने उसका लालन-
पालन
पिता के समान किया है,
मां के गर्भ से ही मैं उसका मार्ग-दर्शन
करता रहा हूं।)
19यदि मेरी आंखों के सामने
कोई गरीब वस्त्र के अभाव में
ठण्ड के कारण मर गया
अथवा मैंने किसी गरीब को वस्त्रहीन देखा
20और उसको अपनी भेड़ों के ऊन के वस्त्र
नहीं दिए
और उसने ठण्ड से मुक्त हो
मुझे आशीर्वाद न दिया हो,
21अथवा यदि मैंने नगर के प्रवेश-द्वार पर
अपने सहायकों को देखकर
किसी पितृहीन व्यक्ति पर हाथ उठाया है
22तो मेरे उस हाथ का पखौड़ा कन्धे से टूटकर
गिर पड़े,
मेरी भुजा भी जोड़ से उखड़ जाए!
23मैं परमेश्वर के द्वारा ढाही गई विपत्तियों के
कारण आतंकित था,
इसलिए मैं यह अधर्म कर नहीं सकता था।
मैं परमेश्वर के प्रताप का सामना करने में
असमर्थ था।
24‘यदि मैंने सोना-चांदी का भरोसा किया
होता,
अथवा शुद्ध सोने को अपना आश्रय माना
होता;#प्रव 31:5-10
25यदि मैंने अपनी विशाल धन-सम्पत्ति के
कारण आनन्द मनाया होता,
या इस कारण कि बहुत-सा धन मेरे हाथ
लग गया है,
26यदि मेरा हृदय चमकते हुए सूर्य को,
अथवा शान से अग्रसर होते हुए चन्द्रमा को
देखकर,#व्य 4:19; यिर 8:2
27उन पर मोहित हुआ होता,
और मैंने उनकी पूजा की होती
28तो मेरा यह कार्य भी अधर्म होता,
और इस अधर्म का कठोर दण्ड
न्यायाधीशों के द्वारा अवश्य दिया जाना
चाहिए;
क्योंकि मैंने सर्वोच्च परमेश्वर के प्रति
विश्वासघात किया होता।
29‘यदि मैं अपने बैरी के विनाश से आनन्दित
होता,
अथवा जब उस पर विपत्ति आती,
और मैं उसकी हंसी उड़ाता,
तो मैं शापित होऊं!
30परन्तु मैंने उसको मृत्यु का शाप कभी नहीं
दिया;
और यों अपने मुंह से यह जघन्य पाप नहीं
किया।#मत 5:44
31सच तो यह है कि मेरे तम्बू में रहनेवाला
प्रत्येक व्यक्ति यह कहता है :
“कौन है वह मनुष्य
जो अय्यूब के घर का भोजन खाकर तृप्त
नहीं हुआ?”
32मेरे कारण विदेशी को सड़क पर रात
गुजारनी नहीं पड़ती थी,
मैं राहगीर के लिए अपना द्वार सदा खुला
रखता था।
33-34क्या मैं कभी समाज की क्रुद्ध-भीड़ के
डर से
कुटुम्बियों की घृणा के आतंक से चुप रहा
और दरवाजे के बाहर कदम न रखा,
जिससे मैं आदम के समान अपना अपराध
छिपा लूं
अथवा अपने हृदय के कोने में अधर्म ढक
लूं?
35‘काश! मेरा भी कोई हितैषी होता,
जो मेरी बात सुनता!
परमेश्वर की अदालत में
मेरी यह अर्जी है :
सर्वशक्तिमान परमेश्वर मेरा न्याय करे!
काश! मेरा मुद्दई अभियोग-पत्र लिखता,
और वह मेरे पास होता!
36तो मैं उसको छाती से लगाए हुए फिरता,
मैं उसको मुकुट की तरह सिर पर धारण
करता!
37मैं अपने मुद्दई को अपने हर कदम का
हिसाब देता,
राजनेता के समान मैं उसके समीप आता।
38‘यदि मेरी भूमि मेरे विरुद्ध दुहाई देती,
उसकी हल-रेखाएँ मिलकर रोतीं;
39यदि किसान को उसकी मजदूरी चुकाए
बिना
मैंने अपनी खेत की फसल खायी होती,
अथवा भूमि के मालिकों का प्राण लिया
होता
40तो मेरे खेत में गेहूं के बदले कांटे,
जौ के बदले जंगली घास उगे!’
यहाँ अय्यूब का कथन समाप्त हुआ
वर्तमान में चयनित:
अय्यूब 31: HINCLBSI
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