याकूब 1
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अभिवादन
1परमेश्वर के और प्रभु यीशु मसीह के दास याकूब#मत्ती 13:55; मरकुस 6:3; प्रेरि 15:13; गला 1:19 की ओर से उन बारहों गोत्रों को जो तितर–बितर होकर रहते हैं नमस्कार पहुँचे।
विश्वास और बुद्धिमानी
2हे मेरे भाइयो, जब तुम नाना प्रकार की परीक्षाओं में पड़ो, तो इसको पूरे आनन्द की बात समझो, 3यह जानकर कि तुम्हारे विश्वास के परखे जाने से धीरज उत्पन्न होता है। 4पर धीरज को अपना पूरा काम करने दो कि तुम पूरे और सिद्ध हो जाओ, और तुम में किसी बात की घटी न रहे।
5पर यदि तुम में से किसी को बुद्धि की घटी हो तो परमेश्वर से माँगे, जो बिना उलाहना दिए सब को उदारता से देता है, और उसको दी जाएगी। 6पर विश्वास से माँगे, और कुछ सन्देह न करे, क्योंकि सन्देह करनेवाला समुद्र की लहर के समान है जो हवा से बहती और उछलती है। 7ऐसा मनुष्य यह न समझे कि मुझे प्रभु से कुछ मिलेगा, 8वह व्यक्ति दुचित्ता है और अपनी सारी बातों में चंचल है।
गरीबी और अमीरी
9दीन भाई अपने ऊँचे पद पर घमण्ड करे, 10और धनवान अपनी नीची दशा पर; क्योंकि वह घास के फूल की तरह जाता रहेगा। 11क्योंकि सूर्य उदय होते ही कड़ी धूप पड़ती है और घास को सुखा देती है, और उसका फूल झड़ जाता है और उसकी शोभा जाती रहती है।#यशा 40:6,7 इसी प्रकार धनवान भी अपने मार्ग पर चलते–चलते धूल में मिल जाएगा।
परख और प्रलोभन
12धन्य है वह मनुष्य जो परीक्षा में स्थिर रहता है, क्योंकि वह खरा निकलकर जीवन का वह मुकुट पाएगा जिसकी प्रतिज्ञा प्रभु ने अपने प्रेम करनेवालों से की है। 13जब किसी की परीक्षा#1:13 या प्रलोभन हो, तो वह यह न कहे कि मेरी परीक्षा परमेश्वर की ओर से होती है; क्योंकि न तो बुरी बातों से परमेश्वर की परीक्षा हो सकती है, और न वह किसी की परीक्षा आप करता है। 14परन्तु प्रत्येक व्यक्ति अपनी ही अभिलाषा से खिंचकर और फँसकर परीक्षा#1:14 या प्रलोभन में पड़ता है। 15फिर अभिलाषा गर्भवती होकर पाप को जनती है और पाप जब बढ़ जाता है तो मृत्यु को उत्पन्न करता है।
16हे मेरे प्रिय भाइयो, धोखा न खाओ। 17क्योंकि हर एक अच्छा वरदान और हर एक उत्तम दान ऊपर ही से है, और ज्योतियों के पिता की ओर से मिलता है, जिसमें न तो कोई परिवर्तन हो सकता है, और न अदल बदल के कारण उस पर छाया पड़ती है। 18उसने अपनी ही इच्छा से हमें सत्य के वचन के द्वारा उत्पन्न किया, ताकि हम उसकी सृष्टि की हुई वस्तुओं में से एक प्रकार के प्रथम फल हों।
सुनना और करना
19हे मेरे प्रिय भाइयो, यह बात तुम जान लो : हर एक मनुष्य सुनने के लिये तत्पर और बोलने में धीर और क्रोध में धीमा हो, 20क्योंकि मनुष्य का क्रोध परमेश्वर के धर्म का निर्वाह नहीं कर सकता। 21इसलिये सारी मलिनता और बैर भाव की बढ़ती को दूर करके, उस वचन को नम्रता से ग्रहण कर लो जो हृदय में बोया गया और जो तुम्हारे प्राणों का उद्धार कर सकता है। 22परन्तु वचन पर चलनेवाले बनो, और केवल सुननेवाले ही नहीं जो अपने आप को धोखा देते हैं। 23क्योंकि जो कोई वचन का सुननेवाला हो और उस पर चलनेवाला न हो, तो वह उस मनुष्य के समान है जो अपना स्वाभाविक मुँह दर्पण में देखता है। 24इसलिये कि वह अपने आप को देखकर चला जाता और तुरन्त भूल जाता है कि वह कैसा था। 25पर जो व्यक्ति स्वतंत्रता की सिद्ध व्यवस्था पर ध्यान करता रहता है, वह अपने काम में इसलिये आशीष पाएगा कि सुनकर भूलता नहीं पर वैसा ही काम करता है। 26यदि कोई अपने आप को भक्त समझे और अपनी जीभ पर लगाम न दे पर अपने हृदय को धोखा दे, तो उसकी भक्ति व्यर्थ है। 27हमारे परमेश्वर और पिता के निकट शुद्ध और निर्मल भक्ति यह है कि अनाथों और विधवाओं के क्लेश में उनकी सुधि लें, और अपने आप को संसार से निष्कलंक रखें।
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