रोमियों 2
2
परमेश्वर का न्याय
1अत: हे दोष लगानेवाले, तू कोई क्यों न हो, तू निरुत्तर है; क्योंकि जिस बात में तू
दूसरे पर दोष लगाता है उसी बात में अपने आप को भी दोषी ठहराता है,#मत्ती 7:1; लूका 6:37 इसलिये कि तू जो दोष लगाता है स्वयं ही वह काम करता है। 2हम जानते हैं कि ऐसे ऐसे काम करनेवालों पर परमेश्वर की ओर से ठीक–ठीक दण्ड की आज्ञा होती है। 3हे मनुष्य, तू जो ऐसे–ऐसे काम करनेवालों पर दोष लगाता है और आप वे ही काम करता है; क्या यह समझता है कि तू परमेश्वर की दण्ड की आज्ञा से बच जाएगा? 4क्या तू उसकी कृपा, और सहनशीलता, और धीरजरूपी धन को तुच्छ जानता है? क्या यह नहीं समझता कि परमेश्वर की कृपा तुझे मन फिराव को सिखाती है? 5पर तू अपनी कठोरता और हठीले मन के कारण उसके क्रोध के दिन के लिये, जिसमें परमेश्वर का सच्चा न्याय प्रगट होगा, अपने लिये क्रोध कमा रहा है। 6वह हर एक को उसके कामों के अनुसार बदला देगा :#भजन 62:12; नीति 24:12 7जो सुकर्म में स्थिर रहकर महिमा, और आदर, और अमरता की खोज में हैं, उन्हें वह अनन्त जीवन देगा; 8पर जो विवादी हैं और सत्य को नहीं मानते, वरन् अधर्म को मानते हैं, उन पर क्रोध और कोप पड़ेगा। 9और क्लेश और संकट हर एक मनुष्य के प्राण पर जो बुरा करता है आएगा, पहले यहूदी पर फिर यूनानी पर; 10परन्तु महिमा और आदर और कल्याण हर एक को मिलेगा, जो भला करता है, पहले यहूदी को फिर यूनानी को। 11क्योंकि परमेश्वर किसी का पक्षपात नहीं करता।#व्य 10:17
12इसलिये जिन्होंने बिना व्यवस्था पाए पाप किया, वे बिना व्यवस्था के नष्ट भी होंगे; और जिन्होंने व्यवस्था पाकर पाप किया, उनका दण्ड व्यवस्था के अनुसार होगा; 13(क्योंकि परमेश्वर के यहाँ व्यवस्था के सुननेवाले धर्मी नहीं, पर व्यवस्था पर चलनेवाले धर्मी ठहराए जाएँगे। 14फिर जब अन्यजाति लोग जिनके पास व्यवस्था नहीं, स्वभाव ही से व्यवस्था की बातों पर चलते हैं, तो व्यवस्था उनके पास न होने पर भी वे अपने लिये आप ही व्यवस्था हैं। 15वे व्यवस्था की बातें अपने अपने हृदयों में लिखी हुई दिखाते हैं और उनके विवेक#2:15 अर्थात्, मन या कॉनशन्स भी गवाही देते हैं, और उनके विचार परस्पर दोष लगाते या उन्हें निर्दोष ठहराते हैं;) 16जिस दिन परमेश्वर मेरे सुसमाचार के अनुसार यीशु मसीह के द्वारा मनुष्यों की गुप्त बातों का न्याय करेगा।
यहूदी और व्यवस्था
17यदि तू यहूदी कहलाता है, और व्यवस्था पर भरोसा रखता है, और परमेश्वर के विषय में घमण्ड करता है, 18और उसकी इच्छा जानता और व्यवस्था की शिक्षा पाकर उत्तम उत्तम बातों को प्रिय जानता है; 19और अपने पर भरोसा रखता है कि मैं अंधों का अगुवा, और अंधकार में पड़े हुओं की ज्योति, 20और बुद्धिहीनों का सिखानेवाला, और बालकों का उपदेशक हूँ; और ज्ञान, और सत्य का नमूना, जो व्यवस्था में है, मुझे मिला है। 21अत: क्या तू जो दूसरों को सिखाता है, अपने आप को नहीं सिखाता? क्या तू जो चोरी न करने का उपदेश देता है, आप ही चोरी करता है? 22तू जो कहता है, “व्यभिचार न करना,” क्या आप ही व्यभिचार करता है? तू जो मूरतों से घृणा करता है, क्या आप ही मन्दिरों को लूटता है? 23तू जो व्यवस्था के विषय में घमण्ड करता है, क्या व्यवस्था न मानकर परमेश्वर का अनादर करता है? 24“क्योंकि तुम्हारे कारण अन्यजातियों में परमेश्वर के नाम की निन्दा की जाती है,” जैसा लिखा भी है।#यशा 52:5
25यदि तू व्यवस्था पर चले तो खतने से लाभ तो है, परन्तु यदि तू व्यवस्था को न माने तो तेरा खतना बिन खतना की दशा ठहरा। 26इसलिये यदि खतनारहित मनुष्य व्यवस्था की विधियों को माना करे, तो क्या उसकी बिन खतना की दशा खतने के बराबर न गिनी जाएगी? 27और जो मनुष्य शारीरिक रूप से बिन खतना रहा, यदि वह व्यवस्था को पूरा करे, तो क्या तुझे जो लेख पाने और खतना किए जाने पर भी व्यवस्था को माना नहीं करता है, दोषी न ठहराएगा? 28क्योंकि यहूदी वह नहीं जो प्रगट में यहूदी है; और न वह खतना है जो प्रगट में है और देह में है। 29पर यहूदी वही है जो मन में है; और खतना वही है जो हृदय का और आत्मा में है,#व्य 30:6 न कि लेख का : ऐसे की प्रशंसा मनुष्यों की ओर से नहीं, परन्तु परमेश्वर की ओर से होती है।
वर्तमान में चयनित:
रोमियों 2: HINOVBSI
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