नीतिवचन 27
27
1कल के दिन के विषय में डींग मत मार,
क्योंकि तू नहीं जानता कि दिन भर में क्या होगा। (याकू. 4:13,14)
2तेरी प्रशंसा और लोग करें तो करें, परन्तु तू आप न करना;
दूसरा तुझे सराहे तो सराहे, परन्तु तू अपनी सराहना न करना।
3पत्थर तो भारी है और रेत में बोझ है,
परन्तु मूर्ख का क्रोध, उन दोनों से भी भारी है।
4क्रोध की क्रूरता और प्रकोप की बाढ़,
परन्तु ईर्ष्या के सामने कौन ठहर सकता है?
5खुली हुई डाँट गुप्त प्रेम से उत्तम है।
6जो घाव मित्र के हाथ से लगें वह विश्वासयोग्य हैं
परन्तु बैरी अधिक चुम्बन करता है।
7सन्तुष्ट होने पर मधु का छत्ता भी फीका लगता है,
परन्तु भूखे को सब कड़वी वस्तुएँ भी मीठी जान पड़ती हैं।
8स्थान छोड़कर घूमनेवाला मनुष्य उस चिड़िया के समान है,
जो घोंसला छोड़कर उड़ती फिरती है।
9जैसे तेल और सुगन्ध से,
वैसे ही मित्र के हृदय की मनोहर सम्मति से मन आनन्दित होता है।
10जो तेरा और तेरे पिता का भी मित्र हो उसे न छोड़ना;
और अपनी विपत्ति के दिन, अपने भाई के घर न जाना।
प्रेम करनेवाला पड़ोसी, दूर रहनेवाले भाई से कहीं उत्तम है#27:10 प्रेम करनेवाला पड़ोसी, दूर रहनेवाले भाई से कहीं उत्तम है: वास्तव में, मन और आत्मा के निकट रहनेवाला पड़ोसी उससे बेहतर है जो रिश्ते में भाई तो है परन्तु भावनाओं में दूर है।।
11 हे मेरे पुत्र, बुद्धिमान होकर#27:11 हे मेरे पुत्र, बुद्धिमान होकर: अपने सच्चे शिष्य के लिए शिक्षक का वचन, वह उससे याचना करता है कि विद्वान की खराई उसके गुरू के चरित्र या शिक्षाओं पर किए गए कटाक्षों का सबसे सच्चा उत्तर होगा। मेरा मन आनन्दित कर,
तब मैं अपने निन्दा करनेवाले को उत्तर दे सकूँगा।
12बुद्धिमान मनुष्य विपत्ति को आती देखकर छिप जाता है;
परन्तु भोले लोग आगे बढ़े चले जाते और हानि उठाते हैं।
13जो पराए का उत्तरदायी हो उसका कपड़ा,
और जो अनजान का उत्तरदायी हो उससे बन्धक की वस्तु ले ले।
14जो भोर को उठकर अपने पड़ोसी को ऊँचे शब्द से आशीर्वाद देता है,
उसके लिये यह श्राप गिना जाता है।
15झड़ी के दिन पानी का लगातार टपकना,
और झगड़ालू पत्नी दोनों एक से हैं;
16जो उसको रोक रखे, वह वायु को भी रोक रखेगा और दाहिने हाथ से वह तेल पकड़ेगा।
17जैसे लोहा लोहे को चमका देता है,
वैसे ही मनुष्य का मुख अपने मित्र की संगति से चमकदार हो जाता है।
18जो अंजीर के पेड़ की रक्षा करता है वह उसका फल खाता है,
इसी रीति से जो अपने स्वामी की सेवा करता उसकी महिमा होती है।
19जैसे जल में मुख की परछाई मुख को प्रगट करती है,
वैसे ही मनुष्य का मन मनुष्य को प्रगट करती है।
20जैसे अधोलोक और विनाशलोक,
वैसे ही मनुष्य की आँखें भी तृप्त नहीं होती।
21जैसे चाँदी के लिये कुठाली और सोने के लिये भट्ठी हैं,
वैसे ही मनुष्य के लिये उसकी प्रशंसा है।
22चाहे तू मूर्ख को अनाज के बीच ओखली में डालकर मूसल से कूटे,
तो भी उसकी मूर्खता नहीं जाने की।
23अपनी भेड़-बकरियों की दशा भली भाँति मन लगाकर जान ले,
और अपने सब पशुओं के झुण्डों की देख-भाल उचित रीति से कर;
24क्योंकि सम्पत्ति सदा नहीं ठहरती;
और क्या राजमुकुट पीढ़ी से पीढ़ी तक बना रहता है?
25कटी हुई घास उठा ली जाती और नई घास दिखाई देती है
और पहाड़ों की हरियाली काटकर इकट्ठी की जाती है;
26तब भेड़ों के बच्चे तेरे वस्त्र के लिये होंगे,
और बकरों के द्वारा खेत का मूल्य दिया जाएगा;
27और बकरियों का इतना दूध होगा कि तू अपने घराने समेत पेट भरकर पिया करेगा,
और तेरी दासियों का भी जीवन निर्वाह होता रहेगा।
वर्तमान में चयनित:
नीतिवचन 27: IRVHin
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