जीतने वाली प्रवृति नमूना
जीतने वाली प्रवृति 6 - शुद्धता
मत्ती 5:8 "धन्य हैं वे जो मन के शुद्ध हैं। क्योंकि वे परमेश्वर को देखेगें।"
शुद्धता को किसी भी प्रारूप में पाने की चाह की जाती है, लेकिन कम ही लोगों को प्राप्त होती है। हृदय या आत्मा की शुद्धता को यूनानी भाषा में काथारौस कहा जाता है, जिसका अर्थ होता है, शुद्ध, निर्दोष और निष्कलंक। हम प्रभु यीशु के लहू के शुद्धिकरण के काम के द्वारा पवित्र या शुद्ध ठहराये जा चुके हैं। और हम इसी तरह से नियमित समर्पण और जीवन शैली के कारण शुद्ध बने रहते हैं।
जिस क्षण हम "मसीह को स्वीकार" करते हैं, हम वास्तव में अपनी असहाय पापी प्रवृति को मान कर अपने आप को उसकी शुद्ध करने वाली प्रक्रिया के अधीन कर देते हैं। अपनी अवस्था को पहिचानने और मानने के बाद एक ऐसे रवैय्ये की भी जरूरत पड़ती है जिसमें होकर हम सम्पूर्ण जीवन काल के लिए एक ऐसे मार्ग का चुनाव करते हैं जो पाप के प्रभाव से दूर परन्तु हमारे लिए परमेश्वर की योजना पर चलने वाला हो जाता है। स्वीकार करने वाले तो बहुत से लोग होते हैं लेकिन चुनने वाले बहुत कम होते हैं। केवल वे ही लोग शुद्धिकरण को प्राप्त कर पाते हैं। शुद्धिकरण उसके लहू से ही सम्भव है जो हमें निष्कलंक बनाता, और शुरूआत करने के लिए एक शुद्ध जीवन प्रदान करता है। सबसे भारी काम इस जीवन को आगे भी शुद्ध बनाये रखना है।
शुद्धता का अर्थ "निष्कलंकता" है जिसमें छोटे से छोटे दाग की भी कोई जगह नहीं होती। इस शताब्दी में सहिष्षुणता का स्तर बड़ रहा है क्योंकि नैतिक सीमाओं के दायरे टूट रहे हैं। उधम मचाने वाले पाप मीडिया के द्वारा हमारी स्वीकृति प्राप्त करने के लिए लगातार शोर मचा रहे हैं। इससे पहले की हम कुछ समझ पाएं शैतान उस क्षेत्र में प्रवेश कर चुका होता है जिसमें हमको समझौता करने के लिए मना किया गया है। एक तरफ तो हम कुछ लोगों पर बहुत जल्दी दोष लगा देते हैं लेकिन दूसरी ओर हम कुछ लोगों को बड़ी उदारता के साथ सहते रहते हैं। केवल वचन का प्रकाश और आत्मा के प्रति प्रतिक्रया धीरे धीरे हम पर हमारा कपट प्रगट कर देते हैं और हमें परखने में मदद करते हैं। हम अपने हृदयों में उन पापों को पहिचान लेते हैं जिन्हें पहले हम कभी भी नहीं जान पाये थे और हम उन क्षेत्रों में - अर्थात हमारे जीवन और हमारे आप पास में रहने वाले लोगों के जीवनों में सीमाओं को तय करने की ज़रूरत को महसूस करने लगते हैं जो धीरे-धीरे परमेश्वर की योजना से दूर हो गयी हैं।
तो फिर हम इतनी सहिष्षुणता के साथ प्रेम को कैसे प्रगट कर पाते हैं। "पाप से नफरत परन्तु पापी से प्रेम करो" यह कहना तो आसान है लेकिन करना मुश्किल। इसलिए हमें भी अपनी पापमय आदतों को त्यागकर मसीह, उसके वचनों और उसकी आत्मा से भरने की ज़रूरत होती है।
उसके बाद सबसे उत्तम भाग आता है। हम "परमेश्वर को देखने" लगते हैं। हम अलग अलग रूपों में परमेश्वर के नये और अनोखे नज़रिये का आनन्द उठाने लगते हैं। हम हमारे उद्धारकर्ता द्वारा अगुवाई पाकर एक नये संसार की ओर मुड़ जाते हैं, जो कि हमारी कल्पना से भी परे होता है। वह संसार आज यहां पर है और अब परमेश्वर के उस राज्य में तबदील होता जा रहा है जिसमें हम परमेश्वर को आमने सामने देखने वाले हैं।
क्या हम शुद्धता का चुनाव करने की हिम्मत करते हैं? क्या हम ने परमेश्वर को देखना प्रारम्भ कर दिया है?
पवित्र शास्त्र
इस योजना के बारें में
खुशी क्या है? सफलता? भौतिक लाभ? एक संयोग? ये मात्र अनुभूतियां हैं। प्रायः खुशी के प्रति अनुभूति होते ही वह दूर चली जाती है। यीशु सच्ची व गहरी खुशी व आशीष को परिभाषित करते हैं। वह बताते हैं कि आशीष निराश नहीं वरन जीवन रूपान्तरित करती है। वह निराशाओं और संकट में प्रकाशित होती है। वह हमारी व हमारे करीबियों की आत्मा को हर समय व परिस्थिति में उभारती है।
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हम इस योजना को प्रदान करने के लिए बेला पिल्लई को धन्यवाद देना चाहेंगे। ज्यादा जानकारी के लिये पधारें: http://www.bibletransforms.com